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आओ छत पर दीप लेकर / कुमार रवींद्र

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फिर वही संध्या घिरी है
रात होगी
आओ, छत पर हम खड़े हों दीप लेकर

दूर क्षितिजों से उमड़कर
घुप अँधेरे आ रहे हैं
संग अपने जुगनुओं की
भीड़ भी वे ला रहे हैं

वक़्त यह बीहड़
हवाएँ अजनबी हैं
कहीं सपने खो न जाएँ - है यही डर

गए बच्चे यात्रा पर -
उन्हें भी तो लौटना है
एक जादू का महल भी
बीच-जंगल में बना है

वहीं पर तो
हाँ, छली पगडंडियाँ हैं
धुएँ भी दिख रहे जंगल के सिरे पर

यह हमारा दीप पूर्वज है
दमकते कुमकुमों का
इसी ने है तेज सिरजा
सूर्य-अश्वों के सुमों का

और अंतिम साँस तक
यह ही दिखाएगा
रास्ता उनको - रहे जो जन्म से बेघर