भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आओ बैठा जाय / रामगोपाल 'रुद्र'
Kavita Kosh से
आओ, बैठा जाय यहाँ, कुछ देर बैठा जाय!
दूबों का मखमली गलीचा,
धरती की ममता से सींचा,
खुली चाँदनी, धुला बगीचा,
आओ, बैठ यहाँ वह कौतुक फिर दुहराया जाय!
जीवन में ऐसे सुख के छिन
गिने-चुने होते हैं, लेकिन
भूले नहीं भूलते वे दिन;
आओ, उस दिन-सा, आँखों-आँखों मुसकाया जाय!