आओ,
सीखें
खेजड़े
फोग
खींप से
जो रह लेते
तपते रेगिस्तान में,
सह लेते
धूल-धक्कड़ वाली
आंधियों के थपेड़े,
जीते हैं
जलाभाव में भी।
तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद
पा लेते हैं
कैसी-कैसी अनुकूलताएं,
उनकी जड़ें
खोज लेती हैं
रेत के सागर में घुले
जलकणों को।
अपने हक की खातिर
अनवरत जूझते हैं वे।
2004