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आख़िर कबतक / एम० के० मधु
Kavita Kosh से
तुम कब सुनोगी
पहाड़ पर उतरते
उदास बादलों की आहट
कब देखोगी
शांत झील में
एक कंकड़ी से उठा जल तरंग
जानवरों के शोर शराबे में
घने जंगल के उस पेड़ की
पत्तियों का रुदन
कब महसूस करोगी
तुम कब पढ़ोगी
मेरे चेहरे पर
दोपहर और सांध्य-वेला का संघर्ष
और कब पढ़ोगी
मेरी आंखों में
रोज लिखी जाने वाली एक ही भाषा
जिसका अर्थ सबको मालूम है
पर तुम्हें मालूम नहीं
क्योंकि तुम्हारे पास आंखें हैं
कान हैं
दिल भी है
पर ढेर सारे पत्थरों के बीच
तुम्हारे दिमाग में
पत्थरों की नदी बहती है।