भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आवइत रहऽ / जयराम दरवेशपुरी
Kavita Kosh से
इयाद जब-जब करूँ
तू आबइत रहऽ
ठोर पर से हँसी
छलकावइत रहऽ
बादर बनि-बनि
तू मन में बरसऽ
आके मुरझल मन तू
हरियाबइत रहऽ
छूछ रूख जइसे हो
आवल करऽ
आके मुस्कान हरदम
लुटाबइत रहऽ
सुख-दुख दुन्नूं
जिनगी के सिंगार हे
बात मन में ई हरदम
सजाबइत रहऽ
गीत के लोर से
सज रहल हर गली
आस के पाँख तू
फड़फड़ाबइत रहऽ
कत्ते हरखित हे मन
तोहर पाके दरस
मन से मने मन
तू बहलावइत रहऽ।