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इतना भी आसान नहीं है / सीमा अग्रवाल
Kavita Kosh से
भूल भुलैयों में जिस्मों की
खो कर ख़ुद को वापस पाना
इतना भी आसान नहीं है
ज़रा ज़रा-सा टूटा सूरज
चिटका चंदा ज़रा ज़रा-सा
कभी सांवली सांझ अगोरे
कभी दीप ले झरा झरा-सा
पेबंदों से भरी कल्पना
रेशा रेशा छीजा-सा ले
ताज़ा-टटका गीत सुनाना
इतना भी आसान नहीं है
दूर दूर छिटके-छिटके हैं
कहीं वहाँ पर कहीं कहाँ पर
साँसों के रीतते पियाले
देख रहे पल आँखें भर कर
खोया खोया-सा मन लेकर
आँधी तूफानों की जद में
खोही में दिन-रात बिताना
इतना भी आसान नहीं है
धसक गयीं घर की दीवारे
बुनियादों ने हारी मानी
ईंट-पत्थरों के टीलों पर
बेशर्मी ने चादर तानी
मीठे से खारे में बदला
है जो, हर दिन बूँद-बूँद कर
उस पानी की प्यास बुझाना
इतना भी आसान नहीं है