भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
इस सुकूते फ़िज़ा में खो जाएं / फ़िराक़ गोरखपुरी
Kavita Kosh से
					
										
					
					  
इस सुकूते-फ़िज़ा<ref>मौसम का मौन</ref> में खो जाएं
आसमानों के राज़ हो जाएं 
हाल सबका जुदा-जुदा ही सही 
किस पे हँस जाएं किस पे रो जाएं 
राह में आने वाली नस्लों के 
ख़ैर कांटे तो हम न बो जाएं 
ज़िन्दगी क्या है आज इसे ऐ दोस्त
सोच लें और उदास हो जाएं 
रात आयी 'फ़िराक़' दोस्त नहीं
किससे कहिए कि आओ सो जाएं
शब्दार्थ
<references/>
	
	