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उछल के धरऽ गियारी हो / जयराम दरवेशपुरी
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चेत चलऽ चेतऽ हाली
उछल के धरऽ गियारी हो
इचना पोठिया बनल हो गेलो
अब तू बनऽ बोवारी हो
लइन में बइठल
हो गुम्मे बड़का हो खुरफाती
जने नजर जाहे तन्ने
मिले हे बगुला पाँती
सोंचऽ ही कि सम्हल के रहिहा
अबरी दाव करारी हे
बनऽ केकोड़ा हाली भइया
बगुला गर्दन में लटकऽ
आश लगइले हो चककइके
ओकरा फुर्ती सन पटकऽ
अड़बड़ कइलको ढेर दिना से
सब कसर चुकाना करारी हो
करनी के फल पइतइ बगुला
ऊँच नीच ब सूऽ लगतइ
राह के रोड़ा साफ होतइ तब
गुदगरकन भी बूझऽ लगतइ
छोट स्वार्थ में रूकऽ न भइया
रूके में घाटी भारी हो।