भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
उजड़ कर हर एक मेला रह गया / सुधेश
Kavita Kosh से
उजड़ कर हर एक मेला रह गया
अन्त में दर्शक अकेला रह गया।
सुखों की चाँदनी में तुम नहा लो
सीस पर कोई दुपहरी सह गया।
हर शमा के साथ इक परवाना है
मैं ही महफ़िल में अकेला रह गया।
हँसते हँसते आदमी रोने लगा
काल आ कर कान में क्या कह गया।
हर किसी के साथ में सारा जहाँ
भीड़ में मैं ही अकेला रह गया।
हवामहलों से हवा यह कह गई
एक दिन पुख़्ता क़िला भी ढह गया।