उत्तर काण्ड / भाग 13 / रामचंद्रिका / केशवदास
सुग्रीव- विप्र-पुत्र तुम सीस सभारौ।
राखि लेहि अब ताहि पुकारौ।।253।।
गौरी छंद
लव- सुग्रीव कहा तुमसों रन माड़ौं।
तो अति कायर जानि कै छाँड़ौं।।
बालि तुम्हैं बहु नाच नचायो।
कहा रन मंडन मोसन आयो।।254।।
तारक छंद
फलहीन सो ताकहँ बान चलायो।
अति बात भ्रम्यो बहुधा मुरझायो।।
तब दौरि कै बान विभीषन लीन्हों।
लव ताहि विलोकतहीं हँसि दीन्हों।।255।।
सुंदरी छंद
आउ बिभीषन तू रनदूषन।
एक तुहीं कुल कौ किलभूषन।।
जूझ जुरे जे भले भय जी के।
शत्रुहि आइ मिले तुम नीके।।256।।
दोधक छंद
देववधू जबहीं हरि ल्यायो।
क्यों तबहीं तजि ताहि न आयो।।
यों अपने जिय के डर आयो।
छुद्र सबै कुलछिद्र बतायो।।257।।
(दोहा) जैठो भैया अन्नदा, राजा पिता समान।
ताकी पत्नी तू करौ पत्नी, मातु समान।।258।।
को जानै कै बार तू, कही न ह्वैहै माइ।
सोई तैं पत्नी करी, सुनु पापिन के राइ।।259।।
तोटक छंद
सिगरै जग माँझ हँसावत हैं।
रघुबंसिन पाप नसावत हैं।।
धिक तोकहँ तू अजहूँ जो जियै।
खल जाइ हलाहल क्यौं न पियै।।260।।
कछु है अब तोकह लाज हिये।
कहि कौन बिचार हथ्यार लिये।।
अब जाइ करीष (जंगली कंडे; करसी) की आगि जरौ।
गरु बाँधि कै सागर बूड़ि मरो।।261।।
(दोहा) कहा कहौं हों भरत कों, जानत है सब कोय।
तोसों पापी संग है, क्यों न पराजय होय।।262।।
बहुत युद्ध भो भरत सों, देव अदेव समान।
मोहि महारथ पर गिरे, मारे मोहन बान।263।।
राम कुश संवाद
(दोहा) भरतहि भयौ विलंब कछु, आये श्रीरघुनाथ।।
देख्यौ वह संग्रामथल, जूझि परे सब साथ।।264।।
तोटक छंद
रघुनाथहि आवत आइ गये। रन मैं मुनिबालक रूप रये।।
गुन रूप सुसीलन सौं रम मैं। प्रतिबिंब मनौ निज दर्पन मैं।।265।।
मधुतिलक छंद
सीता समान मुखचंद्र विलोकि राम।
बूझयो कहाँ बसत हौ तुम कौन ग्राम।।
माता पिता कवन कौनेहि कर्म कीन।
विद्याविनोद शिष कौनेहि अस्त्र दीन।।266।।
रूपमाला छंद
कुश- राजराज तुम्हैं कहा मम वंस सौं अब काम।
बूझि लीन्हेहु ईस लोगन जीति कै संग्राम।।
राम- हौं न युद्ध करौं कहे बिन विप्रवेष विलोकि।
बेगि बीर कथा कहौ तुम आपनी रिस रोकि।।267।।
कुश- कन्यका मिथिलेश की हम पुत्र जाये दोइ।
बालमीक अशेष कर्म करे कृपारस भोइ।।
अस्त्र शस्त्र सबै दये अरु वेद भेद पढ़ाइ।
बाप को नहिं नाम जानत, आजु लौं रघुराइ।।268।।
दोधक छंद
जानकि के मुख अक्षर आने।
राम तहीं अपने सुत जाने।।
विक्रम साहस सील विचारे।
युद्ध कथा कहि आयुध डारे।।269।।
राम- अंगद जीति इन्हैं गहि ल्यावो।
कै अपने बल मारि भगावो।।
वेगि बुझावहु चित्त चिता कों।
आजु तिलोदक देहु पिता कों।।270।।
अंगद तौ अँग अंगनि फूले।
पौन के पुत्र कह्यो अति भूले।।
जाइ जुरे लव सौं तरु लै कै।
बात कही सतखंडन कै कै।।271।।
अंगद लव संग्राम
लव- अंगद जौ तुम पै बल होतो।
तौ वह सूरज को सुत को तो,
देखत ही जननी जो तिहारी।
वा सँग सोवति ज्यौं बर-नारी?।।272।।
जा दिन तैं युवराज कहाये।
विक्रम बुद्धि विवेक बहाये।
जीवत पै कि मरे पहँ जैहै।
कौन पिताहि तिलोदक दैहै।।273।।