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उत्तर काण्ड / भाग 6 / रामचंद्रिका / केशवदास

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चंद्रकला छंद

सब के कलपदु्रम के बन है, सब के बर बारन गाजत हैं।
सब के घर शोभति देवसभा, सब के जय दुंदुभि बाजत हैं।
निधि सिद्धि विशेष अशेषनि सों, सब लोग सबै सुख साजत है।
कहि केशव श्रीरघुराज के राज सबै सुरराज से राजत हैं।।106।।

दंडक

जूझहि में कलह, कलहप्रिय नारदै,
कुरूप है कुबेरै, लाभ सब के चयन को।
पापन की हानि, डर गुरुन को, बैरी काम,
आगि सर्वभक्षी, दुखदायक अयन को।
विद्या ही में बादु, बहुनायक है बारिनिधि,
जारज है हनुमंत, मीत उदयन को।
आँखिन अछत अध, नारी केर कृश कटि,
ऐसो राज राजै राम राजिवनयन को।।107।।
(दोहा) कुटिल कटाक्ष, कठोर कुच, एकै दुःख अदेय।
द्विस्वभाव अश्लेष में, ब्राह्मण, जाति अजेय।।108।।

तोमर छंद

बहु शब्द बंचक जानि। अलि पश्यतोहर (देखते देखते चुराने वाला) मानि।
नर छाँहई अपवित्र। शर खंग निर्दय मित्र।।109।।
(सोरठा) गुण तजि औगुण जाल, गहत नित्यप्रति चालनी।
पंुश्चली ति (तिय; स्त्री) तेहिकाल, एकै कीरति जानिबे।।110।
(दोहा) धनद लोक सुरलोक मय, सप्तलोक के साज।
सप्तद्वीपवति महि बसी, रामचंद्र के राज।।111।।
दशसहस्र दस सै बरस, रसा बसी यहि साज।
स्वर्ग नर्क के मग थके, रामचंद्र के राज।।112।।

सीता त्याग

सुंदरी छंद

एक समय रघुनाथ महामति।
सीतहिं देखि सगर्भ बड़ी रति।।
सुंदरि माँगु जो जी महँ भावत।
मो मन तो निरखे सुख पावत।।113।।
सीता- जो तुम होत प्रसन्न महामति।
मेरे बढ़ै तुमहीं सो सदा रति।।
अंतर की सब बात निरंतर।
जानत हौ सब को सबतें पर।।114।।
राम- (दोहा) निर्गुण ते मैं सगुण भो, सुनु सुंदरि तव हेत।
और कछू माँगो सुमुखि, रुचै जो तुम्हरे चेत (चित्त)।।115।।

सुंदरी छंद

सीता- जो सबते हित मोकह कीजत।
ईश दया करिकै बरु दीषत।।
हैं जितने ऋषि देवनदी तट।
हौं तिनकों पहिराय फिरौं पट।।116।।
राम- (दोहा) प्रथम दोहदै (गर्भवती की इच्छा) क्यों करौं निष्फल सुनि यह बात।
पट पहिरावन ऋषिन को जैयो सुंदरि प्रात।।117।।

सुंदरी छंद

भोजन कै तब श्रीरघुनंदन।
पौढ़ि रहे बहु दुष्टनिकंदन।।
बाजे बजे अधरात भई जब।
दूतन आइ प्रणाम करी तब।।118।।

चचला छंद

दूत भूत भावना (किसी जीव के विचार) कही कही न जाय बैन।
कोटिधा विचारियो परै कछू विचार मैं न।।
सूर के उदोत होत बंधु आइयो सुजान।
रामचंद्र देखियौ प्रभात चंद्र के समान।।119।।

संयुक्ता छंद

बहु भाँति बंदनता करी। हँसि बोलयो न दया धरी।
हमसे कछू द्विजदोष है। जेहिते कियो प्रभु रोष है।।120।।
(दोहा) मनसा वाचा कर्मणा, हम सेवक सुनु तात।
कौन दोष नहिं बोलियतु, ज्यौं कहि आये बात।।121।।

संयुक्ता छंद

राम- कहिए कहा न कही परै। कहिए तौ ज्यौ बहुतै डरै।
तब दूत बात सबै कही। बहु भाँति देह दशा दही।।122।।
भरत (दोहा) सदा शुद्ध अति जानकी, निंदति त्यौं खलजाल।
जैसे श्रुतिहि सुभाव ही, पाखंडी सब काल।।123।।
भव अपवादनि तें तज्यौं, त्यैं चाहत सीताहिं।
ज्यौं जग के संयाग तैं, योगी जम समताहि।।124।।

झूलना छंद

मन मानि कै अति शुद्ध सीतहिं आनियो निज धाम।
अवलोकि पावक अंक ज्यों रविअंक पंकजदाम।।
केहि भाँति ताहि निकारिहौ अपवाद बादि बखानि।
शिव ब्रह्म समेत श्रीपितु साखि बोलेहु आनि।।125।।
यमनादि के अपवाद क्यों द्विज छोड़ि हैं कपिलाहि।
विरहीन को दुख देत क्यौं हर डारि चंद्रकलाहि।।
यह है असत्य जो होइगो अपवाद सत्य सु नाथ।
प्रभु छोड़ि शुद्ध सुधा न पीवहु आपने विष हाथ।।126।।