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उसे कोई फरक नहीं पड़ता / रति सक्सेना
Kavita Kosh से
यूँ तो
उससे बिछुड़े अर्सा हो गया
फिर भी वह चली आती है
नीन्द की चादर फैला
लेट जाती है
पीठ के बल
बालों को सपनों में बिखरा
अकसर उसके सपने में
एक पौधा होता है
जिसकी जड़ पर लगी दीमक
चढ़ जाती है
मेरी देह पर
अकसर उसके सपने से
बाहर निकल आते ही
मेरी देह से
जड़ नदारत होती है
मैं डरने लगती हूँ
उससे, उसके सपने से
सपने में जागती
अपनी नीन्द से
उसे कोई फरक नहीं पड़ता
वह चली आती है बालों को
सपनों में फैला कर