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एक किसान का मरना / राकेश कुमार पटेल
Kavita Kosh से
जब एक किसान अपने खेत में
जेठ की लू भरी दोपहरी में
बकरियाँ चराते हुए
फटे प्लास्टिक के जूते पहने
झीने गंदे कुरते में
पुराने, गंदे गमछे की पगड़ी बाँधे
तड़प-तड़पकर मर जाता है तो
वह अकेले नहीं मरता,
बल्कि सारी इंसानियत मर जाती है
सारी सभ्यता, सारी संस्कृति मर जाती है
और एक राष्ट्र के रूप में हम सब मर जाते हैं।