भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

एक दिन मेरी मान लो यूँही / कांतिमोहन 'सोज़'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

यह ग़ज़ल मोहम्मद हसन साहेब की याद को समर्पित, जिन्हें यह बहुत पसन्द थी।

एक दिन मेरी मान लो यूँही ।
मैं कहूँ और तुम सुनो यूँही ।।

कौन कहता है उसपे ग़ौर करो
मेरी फ़रियाद सुन तो लो यूँही ।

कौन था मैं कि मेरी याद आए
एक दिन राह में रूको यूँही ।

देख तो लो मज़ा भी है इसमें
तुम किसीसे वफ़ा करो यूँही ।

काम क्या बेसबब नहीं होता
मेरी दुनिया में आ बसो यूँही ।

मैं न बदलूँगा तुम न बदलोगे
यूँ अगर है तो फिर चलो यूँही ।

सोज़ क्या और तुमसे होना है
शेर कहते रहा करो यूँही ।।