भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कंठ कोकिल का भी थिर है / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
कंठ कोकिल का भी थिर है,
दो कदम पर ही शिशिर है।
कीर चुप थे, मोर चुप हैं,
मौन खंजन, मौन चातक,
उंगलियों में सिमट आए
दिन दिवस के, प्राण धक-धक;
पत्तियाँ ले बन्द मर्मर
नत किए गर्दन झुकी हैं,
जल, जलाशय, जलज तक के
भीत से साँसें रुकी हैं।
दुबड़ियों पर ओस-कण का
शाम से ही टिप-टिपिर है।
एड़ियाँ छूने को आए
रात के ये केश काले,
योगिनी-सी आ रही है
कुन्द-केसर को संभाले;
भोर का यह तुहिन-उत्सव
हिम पवन का नाच धांगर,
चैत के मधुमास में है
माधवी का रूप झामर;
दीर्घ जीवन कामना में
पास ही गलता मिहिर है ।