भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कजली / 28 / प्रेमघन

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अखरी हिन्दी बा अड़ी बोली

जैसो तू त्यों तिहारी, लगी भली यारी रे साँवलिया॥
कारे कान्हर के हित कुबजा, बिधि नै सँवारी रे साँवलिया॥
ज्यों चरवाहो तू त्यों चेरी, वह दई-मारी रे साँवरिया॥
राधा रानी सँग नहिं सोहै, मीत मुरारी रे साँवरिया॥
प्रेम प्रेमघन सम जन पाय, होय सुखकारी रे साँवरिया॥49॥