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कजली / 52 / प्रेमघन

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गवैयों की लय

आई री बरखा ऋतु आली॥
घुमड़ि घुमड़ि घन घटा घिरी चहुँ दिसि चपला चमका वनवाली।
छाय रहे कित जाय प्रेमघन नहिं आये अजहूँ बनमाली॥95॥

॥दूसरी॥

है जानो! दिन चार जवानी॥
दिना चार की चमक चाँदनी, फेरि अँधेरी रात अयानी॥
बादर की परछाहीं है यह, तापैं काह इती इतरानी।
बरसौ रस मिलि रसिक प्रेमघन बैठी हौ भौंहन जुगतानी॥96॥

॥तीसरी॥

हाय! गयो जादू जनु डाली॥
चुभी चितौन कौन विधि निकरै, कसकस रहत अरी उरआली।
बिसरै नाहिं प्रेमघन पिय की प्यारी छबि मनमोहनवाली॥97॥