भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कजली / 73 / प्रेमघन
Kavita Kosh से
अन्य
तीसरे प्रकार का सप्तम विभेद
"सैय्याँ सबादेस पतंगिया औ डोर रे" की चाल
जोबनवां तोरे बड़े बरजोर रे॥
का करिहैं जानी बढ़े पर न जानी,
अबहीं तौ हैं ये उठे थोरै थोर रे।
छाती फारैं देखे, छाती पर तोरे,
नोकीले जैसे कटरिया कै कोर रे।
प्रेम कै पीर बढ़ावैं झलकतै,
हैं घनप्रेम छिपे चित्त चोर रे॥124॥