कबीर और अमेरिका की खोज / दिनेश कुमार शुक्ल
कबीर और अमेरिका की खोज
चल चुके थे
ढूँढ़ने हिन्दोस्तान
उठा कर लंगर
रानी इज़ाबेला के
जंगी जलयान
‘रमइया की दुलहिन’
आ रही थी लूटने बाजार
करती हुई सातों समन्दर पार
‘झीनी-झीनी मलमल की चादर’
से दिख रहा था साफ-साफ
आ रहे थे जहाजी, जीतते संसार
बज रही थी
उन्हीं की ‘नौबत’
गली घर गाँव ‘पुर-पत्तन’
उनकी नश्वरता भी देख रहे थे कबीर
धर्म और तिज़ारत के
‘दो पाटों‘ में पीसता संसार को
सागर की लहरों की घुड़सवारी करता
मिस्मार करता दुनिया को
अग्निकाण्ड-सा फेल रहा था साम्राज्य
‘साबुत’ बचा ना अफ्रीका न एशिया
न नई दुनिया अमरीका की,
पुरनम थीं आँखें कबीर की
चीख कर सावधान कर रहे थे
सभी को कबीर-
‘इक दिन तस्कर आवेगा
बाँह पकड़ ले जावेगा’
अफ्रीकी-तट से लोगों को
घसीट-घसीट ले जा रहे थे
यमदूत-जैसे तस्कर उसी समय,
जहाजों के पेंदों में
कैद जंजीर में बँधे चले
जा रहे थे कबीले के कबीले
देश के देश
सिकन्दर लोदी ने
फेंका कबीर को जंजीर में बाँध कर
नदी में
लेकिन बहती थी ‘नदिया गंभीर’
कबीर के ही भीतर-
नदी ही डूब रही थी अब कबीर में
विजयी कांक्विस्तादोर दस्ते
घस रहे थे अमरीका में
धीरे-धीरे कुतरते
एक विशाल भूखण्ड,
खोज लिया था उन्होंने नया संसार
जैसे शिकारी कुत्ते
झाड़ी में घुस कर निकाल लाते है शिकार
चल रहा था नर संहार
आमेजन के मुहाने से
न्यूफाउण्डलैण्ड तक व्याप्त थी
नरमांस की दुर्गंध
बनारस के सड़ते तालाबों तक से
उठ रहा था भभका उसी
दुर्गंध का-
खोजने इक नई दुनिया
हिमालय की तराई की ओर
मगहर
इसीलिए चले गए थे कबीर