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कर्ण-छठोॅ सर्ग / रामधारी सिंह ‘काव्यतीर्थ’
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दोहा.
तोरोॅ बात व्यर्थ नै, जावेॅ देभौं माय
अर्जुन केॅ छोड़भौं नै, देभौं चार बचाय ।
दूनों में सें कोय एक, मरभौं जानोॅ माय
तोरा पाँच के पाँच ही, बेटा रहतौं माय ।
ऐसनों बात सुनी केॅ, कुंती गले लगाय
गला रुंधी गेलै ही, आँसू धार बहाय ।
संभली केॅ वू बोलै, टलै नै विधि विधान
तोरोॅ कल्याण चाहौं, चार के अभय दान ।
यै तरह सेॅ कर्णों केॅ, देलकै शुभाषीश
कुंती वापसे ऐलै, कर्ण नवावै शीश ।