भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कहाँ जा रहे हो? / सुमन पोखरेल
Kavita Kosh से
महफिलों में मेरे ही गजल जो गा रहे हो
यकीन हुवा के खतूत मेरे पा रहे हो
मैं हूँ तंग किस्मत, या तेरी बदनसिबी है
जाना है मुझे आज ही, तुम कल आ रहे हो
महज इत्तफाक है, या मामला कुछ और है?
यूँ ख्वाबो में आ रहे हो, जा रहे हो
चेहरा देखते हो, या है तसब्वुर में कोई?
आइने से इस तरह क्यों शरमा रहे हो
जला कर चराग ए वफा सुना है कि तुम
साथ तुफान ए मुहब्बत भी ला रहे हो
ठहर जाओ, दिल तोड कर सुमन का
कहाँ जा रहे हो, कहाँ जा रहे हो ?