भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
क़बूलनामा / लुईज़ा ग्लुक / विनोद दास
Kavita Kosh से
यह कहना कि मुझे डर नहीं लगता
सही नहीं होगा
हर किसी की तरह मुझे भी बीमारी, अपमान से
डर लगता हैं
अगर्चे मैंने उसे छिपाना सीख लिया है
पूर्णता से अपने को बचाने के लिए
सभी ख़ुशियाँ मुक़द्दर के गुस्से को न्योता देती हैं
वे बहने हैं — बर्बर
आख़िरकार उनमें ईर्ष्या के सिवा कोई सम्वेदना नहीं होती
अँग्रेज़ी से अनुवाद : विनोद दास