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कागा मत बोल रे ! / शशिकान्त गीते

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बैठे जितना बैठ मुण्डेरों
पर कागा मत बोल रे !

बिन बोले आए पहले ही
दुख बन बैठे हैं बाशिन्दे
छोटी- मोटी और पुरानी
चादर अपनी चिन्दे- चिन्दे
मीठे बोल न बोल मगर
विष, खारे में मत घोल रे !

आँगन धूँ- धूँ जलता है पर
चूल्हे की आगी है ठण्डी
सुविधा के व्यापारी, आँखों
आगे मारे जाते डण्डी
ऐसे माथों बैठ कि बदले
जीवन का भूगोल रे !