भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कुछ कहूँ उससे कुछ छुपा रक्खूं / मेहर गेरा
Kavita Kosh से
कुछ कहूँ उससे कुछ छुपा रक्खूं
बात कुछ इस तरह बढा रक्खूं
आगे-आगे वो चल रहा है मेरे
किस क़दर उससे फासला रक्खूं
जब नई राह उसने अपना ली
अब भी क्या उससे राब्ता रक्खूं
फल तो देखूं कई तरह के मगर
लब पे बस एक ज़ायका देखूं
जिनसे आये तेरे बदन की महक
उन हवाओं से राब्ता रक्खूं।