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कैसे हो गए / यतींद्रनाथ राही
Kavita Kosh से
हम
कभी कैसे थे जाने,
आज कैसे हो गए?
सियासत
इस क़दर हावी हुई है
आदमीयत पर
हो गए हैं
युद्ध के मैदान अपने घर
शब्द-शर हैं
लाठियाँ तलवार हाथों में
आज गोकुल में हुए गुम
बाँसुरी के स्वर
गाँव में अपने हमी अब
अनजान जैसे हो गए।
नेह के बन्धन कहाँ हैं
फर्ज के पालन कहाँ ?
सिमट आया
स्वार्थ के भ्रम-जाल में
सारा जहाँ
हैं कहीं धृतराष्ट्र शकुनी
कर्ण, दुर्योधन कहीं
नीतियाँ निःशब्द सी हैं
धर्म में
धड़मन नहीं
सारथी रथ के ही अपने
बहुत वैसे हो गए!
प्राप्य हैं
बस कुर्सियाँ ही
सत्य केवल अर्थ है
शील, शिष्टाचार, करुणा बन्धुता
सब व्यर्थ है
संहिताएँ स्वं रच लीं
ग्रन्थ रद्दी कर दिये
पीढ़ियों के हित
ज़हर के
बीज बोकर धर दिये
कर्म जैसे भी किये
फल भी तो
तैसे हो गए।