कोई खुश्बू कहीं से आती है
मेरे घर की ज़मीं बुलाती है
ज़िंदगी इक पुरानी आदत है
यूँ तो आदत भी छूट जाती है
जाने क्या-क्या सहा किया हमने
पत्थरों पर शिकन कब आती है
आप होते हैं पर नहीं होते
रात यूँ ही गुज़रती जाती है
तज्रिबा है हरेक पल ऐ ’दोस्त’
ज़िंदगी रोज़ आज़माती है