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कोई चादर यहाँ तानी तो जाये / सिया सचदेव
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कोई चादर यहाँ तानी तो जाये
बरहना तन की उरियानी तो जाये
छलकती है तुम्हारा नाम सुनकर
मिरी आँखों की तुग़यानी तो जाए
जूनून-ए-इश्क़ को मंज़िल मिली फिर
ख़िरद वालों की हैरानी तो जाए
ग़मों की गर्द चेहरे से खुरच दो
तुम्हारी शक्ल पहचानी तो जाए
उजाला ज़ेहन में होगा मुसलसल
अंधेरों की निगेहबानी तो जाए
हकुमत और नव्वाबी गयी हैं
मगर लहजे से सुल्तानी तो जाये
ग़ज़ल में बस यही कोशिश सिया है
कभी आवाज़ पहचानी तो जाये