कविता के शब्दों में
एक शहर को जीता हूँ मैं
शब्द
कभी खुरदरी सड़क बन रेंगता है
कभी अलकतरे का धुआं उड़ाता है
कभी बहुमंजिली इमारतें
कभी स्लम की झोपड़पट्टी
और कभी
चौराहे का बुत बनकर
सामने खड़ा हो जाता है
शब्द
कभी म्यूनिसपेलिटी का कूड़ा
नाक में भरता है
सड़क पर बहता हुआ
गंदे नाले का पानी
कभी दरवाजा छूता है
कभी नल से बेवजह गिरता
पीने का जल
कभी गंदगी में घुलती
पावनी गंगा
और कभी
ट्रैफ़िक के जाम में
बच्चों का संसार डूबता है
शब्द
आंख तकता है
शब्द
सांस लेता है
शब्द
कान गूंजता है
शब्द
मुंह बोलता है
हरे पेड़ों को काला करता
गाड़ियों का धुआं उड़ता है
बस और ट्रेन की छत पर
बेतहाशा भीड़ दौड़ती है
कभी भागती हुई जिंदगी
कभी ठहरा हुआ समय
कभी अखबार के लोकल पन्ने पर
हत्या, अपहरण
और लूट की खबरें होती हैं
कभी काफी-हाउस के कोने में
सोचते हैं-
बीते कल के जनान्दोलन का इतिहास
और कभी
नुक्कड़ की दुकान में
चाय की चुस्कियों पर
विचारते हैं-
सामाजिक न्याय की रूपरेखा
बुझे लैंप-पोस्ट की तरह
सड़क पर चुपचाप खड़ा है शब्द
अपनी परछाई तलाशता है
निहारता है पुफटपाथ-
जाड़े की सर्द रात में
ठिठुरती अधनंगी आबादी
गुप्त होटलों की शाम को
रंगीन करता गुमनाम गोश्त
कॉलोनी के कूड़ेदान पर
नीलाम होता बचपन
और मंदिरों की चौखटों पर
भीख मांगता भाग्यहीन भगवान
और फिर
शब्द बनता है-
बीमार अस्पताल
मुजरिम कोतवाली
बन्द कारखाने
दफ़्तरों में हड़ताल
बिना पढ़ाई का विश्वविद्यालय
पैसे लूटता पब्लिक स्कूल
कोचिंग प्रतिष्ठान में
शिक्षा की कालाबाजारी
बेरोजगारी बढ़ाता इम्प्लायमेंट एक्सचेंज
बिजली का अंधकार
और पानी का हाहाकार
किन्तु इन सबके बावजूद
झूठ और सच के बीच
झूलता यह शहर
शब्द बन कर
मुझे मरने से रोकता है
और मैं रोकता हूं
इस शहर को मरने से
क्योंकि यह शहर, मेरा शहर है।