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ख़ौफ़ तन्हाइयों से खाने लगी / सिया सचदेव

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ख़ौफ़ तन्हाइयों से खाने लगी
ज़िंदगी अब मुझे सताने लगी

जाने इस नींद को हुआ क्या है
रात भर ये मुझे जगाने लगी

ज़िंदगी के उदास लम्हों में
ग़र्द मायूसियों की छाने लगी

अभी पिछला ही ख्वाब टूटा था
फिर नया ख़्वाब इक सजाने लगी

कोई लम्हा ख़ुशी का आया तो
मेरी तक़दीर मुँह चिढ़ाने लगी

दफ़्न उसको वहीं पे कर देंगे
कोई हसरत जो सर उठाने लगी

ज़िंदगी ने तो आज़माया है
मौत भी आँख अब मिलाने लगी