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गीदड़ की शामत / सूर्यकुमार पांडेय

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काम न धन्धा कुछ जंगल में,
रोटी कैसे खाए,
गीदड़ चला शहर को,
शायद रोज़गार पा जाए ।

सोच रहा था खड़ा किनारे,
घुसूँ किस तरह अन्दर,
तभी दिखाई दिया शहर से
वापस आता बन्दर ।

गीदड़ बोला, “बन्दर भाई !
कितना माल कमाया,
मुझको भी कुछ काम मिलेगा,
यही सोचकर आया ।"

बन्दर बोला, “शहर न जाओ,
वरना पछताओगे,
काम न ठेंगा वहाँ मिलेगा,
भूखों मर जाओगे ।

सुना नहीं क्या, बुरे हाल,
चल रही उधर मन्दी है ।
और शहर की हर फ़ैक्टरी में
अब तालाबन्दी है ।"

गीदड़ भाई ! शामत जिसकी आई,
गया शहर को,
मेरी मानो, लौट चलो तुम भी संग
वापस घर को ।”