नीला नभ, छितराये बादल, दूर कहीं निर्झर का मर्मर चीड़ों की ऊध्र्वंग भुजाएँ भटका-सा पड़कुलिया का स्वर, संगी एक पार्वती बाला, आगे पर्वत की पगडंडी : इस अबाध में मैं होऊँ बस बढ़ते ही जाने का बन्दी! 1936