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घर-घर में सिर्फ़ भूख है दर-दर पे प्यास है / फूलचन्द गुप्ता

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घर-घर में सिर्फ़ भूख है दर-दर पे प्यास है
गलियाँ बड़ी निराश हैं, बस्ती उदास है

आकर किसी मज़ार पर वो भी ठहर गया
उसको किसी अज़ीज़ के घर की तलाश है

इक तंज़ में जीया सदैव, गाँठ अधखुली
उसको अजीब प्यार है नफ़रत भी ख़ास है

कुछ ख़ास सुख मिला नहीं, तकलीफ़ कुछ नहीं
रह-रह खटक रही मगर अनजान फाँस है

इक हूक-सी उठी जिगर को चीरती हुई
आसेब की तरह कहीं वो आस-पास है

गाँवों में बौखलाहटें, शहरों में खलबली
जंगल में वो गया वहाँ चिड़िया हताश है