चतुर्थ अंक / भाग 5 / रामधारी सिंह "दिनकर"
सुकन्या (उर्वशी से)
तो यह दारुण नियति-क्रीड़ कब तक चलता जाएगा?
कब तक तुम इस भांति नित्य छिपकर वन में आओगी
सुत को हृदय लगा, क्षण भर, मन शीतल कर लेने को?
और आयु, कुछ कह सकती हो, कब तक यहाँ रहेगा?
हे भगवान! उर्वशी पर यह कैसी विपद पड़ी है.
उर्वशी
आने को तो, स्यात्, आज यह अंतिम ही आना है.
कल से तो फिर लौट पड़ेगी वही सरणि जीवन की,
दिन भर रहना संग-संग प्रियतम के, जहाँ रहें वे,
और बिता देना समग्र रजनी उस प्रणय-कथा में
जिसका कहीं न आदि, न तो मध्यावसान होता है.
तब भी, जानें, विरह आयु का कैसे झेल सकूँगी?
हाय पुत्र! तू क्यों आया था उसके बन्ध्य उदर में,
अभिशप्ता जो नहीं प्यार माँ का भी दे सकती है?
मैं निमित्त ही रही, सुकन्ये! इस अबोध बालक की
तुम्हे छोड़ कर निखिल लोक में और कौन माता है?
केवल भ्रूण-वहन, केवल प्रजनन मातृत्व नहीं है;
माता वही, पालती है जो शिशु को हृदय लगाकर.
सखी! दयामयि देवि! शरण्ये! शुभे! स्वसे! कल्याणी!
मैं क्या कहूँ, वंश से बिछुड़ा कब तक आयु रहेगा
यहाँ धर्म की शरण तुम्हारे अंचल की छाया में?
किंतु, पिता-गृह तो, अवश्य ही उसे कभी जाना है
वह हो आज या कि कुछ दिन में या यौवन आने पर.
अपना सुख तृणवत नगण्य है,उसे छोड़ सकती हूँ.
किंतु, पुत्र का भाग्य भूमि पर रह कैसे फोड़ूँगी?
देना भेज, उचित जब समझो, मुझसे जनित तनय पर
जभी पड़ेगी दृष्टि दयित की, वज्र आन टूटेगा;
गरज उठेगा भरत-शाप मैं पराधीन पुतली-सी
खिंची हुई क्षिति छोड़ अचानक स्वर्ग चली जाऊँगी.
छूट जाएँगे अकस्मात वे सुख, जिनके लालच में,
जब से आई यहाँ, कल्प-कानन को भूल गई हूँ.
यह धरती, यह गगन, मृगॉ से भरी, हरी अट्वी यह,
ये प्रसून, ये वृक्ष स्वर्ग में बहुत याद आएँगे.
झलमल-झलमल सरित्सलिल वह ऊषा की लाली से
शस्यॉ पर बिछली-बिछ्ली आभा वह रजत किरण की,
चहक-चहक उठना वह विहगॉ का निकुंज-पुंजॉ में,
स्वर्ग-वासिनी मैं, श्रद्धा से, नमस्कार करती हूँ
अविनश्वर, सौन्दर्यपूर्ण, नश्वर इस महा मही को.
कितना सुख! कितना प्रमोद! कितनी आनन्द-लहर है!
कितना कम स्वर्गीय स्वयं सुरपुर है इस वसुधा से!
दिन में भी अंकस्थ किए मोहिनी प्रिया छाया को
ये पर्वत रसमग्न, अचल कितने प्रसन्न लगते हैं!
कितना हो उठता महान् यह गगन निशा आने पर,
जब उसके उर में विराट नक्षत्र-ज्वार आता है.
हो उठती यामिनी गहन, तब उन निस्तब्ध क्षणॉ में,
कौन गान है, जिसे अचेतन अन्धकार गाता है?
आती है जब वायु स्पर्श-सुख-मयी सुदूर क्षितिज से,
कौन बात है, जिसे तृणॉ पर वह लिखती जाती है?
और गन्धमादन का वह अनमोल भुवन फूलॉ का!
मृग ही नहीं, विटप-तृण भी कितने सजीव लगते थे!
पत्र-पत्र को श्रवण बना अटवी कैसे सुनती थी
सूक्ष्म निनद, चुपचाप, हमारे चुम्बन, कल कूजन का!
झुक जाती थीं, किस प्रकार, डालियाँ हमें छूने को,
शैलराज, मानो, सपने में बाँहें बढ़ा रहा हो.
किस प्रकार विचलित हो उठते थे प्रसून कुंजॉ के,
फेन-फेन होती वह उर्मिल हरियाली शिखरॉ की
ज्वार बाँध, किस भांति, बादलॉ को छूने उठती थी?
कैसे वे तटिनियाँ उछलती हुई सुढाल शिला पर
हमें देख चलने लगतीं थीं और अधिक इठला कर!
और हाय! वह एक निर्झरी पिघले हुए सुकृत-सी,
तीर-द्रुमॉ की छाया में कितनी भोली लगती थी!
लगता था, यह चली आ रही जिस पवित्र उद्गम से,
वहीं कहीं रहते होंगे नारायण कुटी बनाकर.
आह! गन्धमादन का वह सुख और अंक प्रियतम का!
सखी! स्वर्ग में जो अलभ्य है, उस आनन्द मदिर का,
इसी सरस वसुधा पर मैने छक कर पान किया है.
व्याप गई जो सुरभि घ्राण में, सुषमा चकित नयन में,
रोमांचक सनसनी स्पर्श-सुख की जो समा गई है
त्वचा-जाल, ग्रीवा, कपोल में, ऊँगली की पोरॉ में,
धो पाएगा उसे कभी क्या सलिल वियद-गंगा का?
पारिजात-तरु-तले ध्यान में जगी हुई खोजूँगी
उर:देश पर सुखद लक्ष्म प्रियतम के वक्षस्थल का,
रोमांचित सम्पूर्ण देह पर चिन्ह विगत चुम्बन के.
और कभी क्या भूल सकूँगी उन सुरम्य रभसॉ को,
प्रिय का वह क्रीड़न अभंग मेरे समस्त अंगॉ से;
रस में देना बिता मदिर शर्वरी खुली पलको में
कभी लगाकर मुझे स्निग्ध अपने उच्छ्वसित हृदय से,
कभी बालकॉ-सा मेरे उर में मुख-देश छिपाकर?
तब फिर आलोड़न निगूढ़ दो प्राणॉ की ध्वनियॉ का;
उनकी वह बेकली विलय पाने की एक अपर में;
शोणित का वह ज्वलन, अस्थियॉ में वह चिंगारी-सी,
स्वयं विभासित हो उठना पुलकित सम्पूर्ण त्वचा का,
मानो, तन के अन्धकार की परतें टूट रही हों.
और डूब जाना मन का निश्चल समाधि के सुख में,
किसी व्योम के अंतराल में, किसी महासागर में.
सखि! पृथ्वी का प्रेम प्रभामय कितना दिव्य गहन है!
विसुध तैरते हुए स्वयं अपनी शोणित-धारा में,
क्या जाने, हम किस अदृश्य के बीच पहुंच जाते हैं!
यह प्रदीप्त आनन्द कहाँ सुरपुर की शीतलता में?
पारिजा-द्रुम के फूलॉ में कहाँ आग होती है?
यह तो यही मर्त्य जगती है, जहाँ स्पर्श के सुख से
अन्धकार में प्रभापूर्ण वातायन खुल पड़ते हैं.
जल उठती है प्रणय-वह्नि वैसे ही शांत हृदय में,
ज्यॉ निद्रित पाषाण जाग कर हीरा बन जाता है.
किंतु, हाय री, नश्वरता इन अतुल, अमेय सुखॉ की!
अमर बनाकर उन्हें भोगना मुझको भी दुष्कर है,
यद्यपि मैं निर्जर, अमर्त्य, शाश्वत, पीयूषमयी हूँ.
भरत-शाप, जानें, आकर कितना अदूर ठहरा है
घात लगाए हुए एक ही आकस्मिक झटके में,
पृथ्वी से मेरा सुखमय सम्बन्ध काट देने को!
जो भी करूँ सखी! पर, वह दिन आने ही वाला है,
छिन जाएगा जब समस्त सौभाग्य एक ही क्षण में.
उड़ जाऊँगी छोड़ भूमि पर सुख समस्त भूतल का,
जैसे आत्मा देह छोड़ अम्बर में उड़ जाती है.
हाय! अंत में मुझ अभागिनी शाप-ग्रस्त नारी को
न तो प्राणप्रिय पुत्र न तो प्रियतम मिलने वाले हैं.
चित्रलेखा
भरत-शाप दुस्सह, दुरंत, कितना कटु, दुखदायी है!
क्षण-क्षण का यह त्रास सखी! कब तक सहती जाओगी
उस छागी-सी, सतत भीति-कम्पित जिसकी ग्रीवा पर
यम की जिन्ह्वा के समान खर-छुरिका झूल रही हो?
शिशु को किसी भांति पहुंचाकर प्रिय के राजभवन में
अच्छा है, तुम लौट चलो, आज ही रात, सुरपुर को.
माना, नहीं उपाय शाप से कभी त्राण पाने का;
पर, उसके भय की प्रचण्डता से तो बच सकती हो.
और अप्सरा संततियॉ का पालन कब करती है?
उर्वशी
यॉ बोलो मत सखी! भूमि के अपने अलग नियम हैं.
सुख है जहाँ, वहीं दुख वातायन से झाँक रहा है.
यहाँ जहाँ भी पूर्ण स्वरस है, वहीं निकट खाई में
दाँत पंजाती हुई घात में छिपी मृत्यु बैठी है
जो भी करता सुधापान , उसको रखना पड़ता है
एक हाथ रस के घट पर, दूसरा मरण-ग्रीवा पर.
फिर मैं ही क्यॉ उसे छोड़ दूँ भीत अनागत भय से?
आयु रहेगा यहीं, दूसरी कोई राह नहीं है.
सुकन्या
चित्रे! सखी उचित कहती है, इस निरीह पयमुख को
अभी भेजना नहीं निरापद होगा राजभवन में.
रानी जितनी भी उदार, कुलपाली, दयामयी हों,
विमातृत्व का हम वामा विश्वास नहीं करती हैं.
दो, उर्वशी! इसे मुझको दो, मैं इसको पालूँगी.
(उर्वशी की गोद से आयु को ले लेती है और उसे पुचकारते हुए बोलती जाती है)
यह आश्रम की ज्योति, इन्दु नन्हा इस पर्ण-कुटी का;
सखी! तुम्हारा लाल हमारी आंखॉ का तारा है.
घुटनॉ के बल दौड़-दौड़ मेरा मुन्ना पकड़ेगा
कभी हरिण के कान, कभी डैने कपोत-केकी के.
और खड़ा होकर चलते ही बड़ी रार रोपेगा
शशकॉ, गिलहरियॉ, प्लवंग-शिशुऑ, कुरंग-छौनॉ से
फिर कुछ दिन में और तनिक बढ़कर प्रतिदिन जाएगा
होमधेनुऑ को लेकर गोचर-अनुकूल विपिन में.
और सांझ के समय चराकर उन्हें लौट आएगा
सिर पर छोटा बोझ लिए कुश, दर्भ और समिधा का.
फिर पवित्र होकर, महर्षि के साथ यज्ञ-वेदी पर
बैठ हमारा लाल मंत्र पढ़-पढ़ कर हवन करेगा.
हवन-धूम से आंखॉ में जब वाष्प उमड़ आएँगे
तब मैं दोनॉ नयन पॉछ दूँगी अपने अंचल से.
शस्त्र-शास्त्र-निष्णात, अंग से बली, विभासित मन से
जब अपना यह आयु पूर्ण कैशोर प्राप्त कर लेगा,
पहुंचा दूँगी स्वयं इसे ले जाकर राज-भवन में.
तब तक जा, पीयूष पान कर तू मृण्मयी मही का,
चिंता-रहित, अशंक, आयु को कोई त्रास नहीं है.
उर्वशी
तो मैं चली.
सुकन्या
कहाँ? बँधने को प्रिय के आलिंगन में?
उर्वशी
उस बन्धन में तो अब केवल तन ही बँधा करेगा;
प्राणॉ को तो यहीं तुम्हारे घर छोड़े जाती हूँ.
“पुत्र और पति नहीं, पुत्र या केवल पति पाओगी?”
सखी! सत्य ही, ये विकल्प दारुण, दुरंत, दुस्सह हैं.
अब मत डाले भाग्य किसी को ऐसी कठिन विपद में.
[उर्वशी और चित्रलेखा का प्रस्थान]
चतुर्थ अंक समाप्त