चन्द्र शेखर आजाद / श्रीकृष्ण सरल / कानपुर प्राणों की मशाल / पृष्ठ १
मैं शहर कानपुर, भारत का उद्योग नगर,
मैं वह साँचा हूँ, जिसमें लक्ष्मी ढलती है।
मैं पल भर भी थक कर विश्राम नहीं लेता,
दिन-रात, सुबह या शाम जिन्दगी चलती है।
मेरे जीवन का मूल-मन्त्र केवल श्रम है,
गंगा जैसा ही पावन मुझे पसीना है।
यदि आप कहें, यह जीवन एक अंगूठी है,
मैं कहूँ, पसीना ही उसका अनमोल नगीना है।
दिन-रात, वयोगी उर के सतत प्रज्ज्वलन-सी,
धू-धू करके भट्टियाँ प्रचण्ड दहकती हैं।
इस्पात पिघल जाता स्नेहिल अन्तर-सा,
शुभ अगरु-धूप-सी साँसें नित्य महकती हैं।
श्रम अर्थ-व्यवस्था के क्षय से पीड़ित रहता,
श्रम का फल कोई पाए तो कैसे पाए।
पूँजीवादी अन्तर की स्वार्थ-साधना-सी
चिमनियाँ खड़ी रहतीं सुरसा-सा मुँह बाए।
मन की विकृतियों जैसा धुँआ उगलतीं वे,
उनकी कालिख जन-जीवन पर छा जाती है।
जीवन पर छाई यह कालिख तब उड़ती है,
प्रज्ज्वलित क्रांति की जब आँधी आ जाती है।
आँधियाँ अनेकों मैंने ऐसी देखी हैं,
भूकम्प कई भीषण मेरे घर आए हैं।
मानव होकर जो मानव का शोषण करते
अपनी लपटों से उनके मुँह झुलसाए हैं।
संघर्ष उठाए, मेरे उग्र विचारों ने,
तूफान भयंकर इन साँसों ने झेले हैं।
जिन्दगी धरोहर रखी नहीं फूलों के घर,
मैंने काँटों के खेल अनेकों खेले हैं।
मेरी आँखों में घूम रहा सन् सत्तावन,
जब मुक्ति-समर में मेरे शेर दहाड़े थे।
युद्धोन्माद ने भीषण प्रलय मचाया था,
वे झपट पड़े तो शत्रु कलेजे फाड़े थे।
फिर क्रांन्ति-काल के वे दिन जब लपटें नाचीं,
पिस्तौलों ने जब मचल भैरवी गाई थी।
बम के गोलों ने भड़क-भड़क कर ताल दिया,
अंग्रेजों की तब अकल ठिकाने आई थी।
वे सिंह-सूरमा एक-दूसरे से बढ़कर,
बन गया कानपुर उनके लिए अखाड़ा था।
लोहू से उनने रंगा क्रान्ति के झण्डे को,
साम्राज्यवाद की छाती पर ही गाड़ा था।
जब डूब गए कुछ तारे, कुछ टिमटिमा रहे,
आजाद, गगन में धूमकेतु-सा आया था।
साम्राज्यवाद के पैरों की धरती खिसकी,
सत्यानाशी फल उसने उन्हें चखाया था।
जाने कितनी थी आग विचारों में उसके,
संकेतों में ज्वालामुखियों का नर्तन था।
बलिपंथी पागल पर्वानों को साथ लिए,
वह एक नए युग का कर रहा प्रवर्तन था।
रौंदा करता था शत्रु-कलेजे मचल-मचल,
वह क्रुद्ध प्रभंजन जैसी भीषण चाल लिए।
वह खोज रहा था भारत की आजादी को,
अपने प्राणों की जलती हुई मशाल लिए।