भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
चार ताँका / इशिकावा ताकुबोकु / उज्ज्वल भट्टाचार्य
Kavita Kosh से
1.
मुझे डर है
अपने एक हिस्से से
जिसे मेरी अब कोई परवाह नहीं
2.
बेजान बालू में एक उदासी
उँगलियों के बीच से सरकती है
जब मुट्ठीं बान्ध लेता हूँ
3.
जम्भाई का बहाना, सोने का भान,
आख़िर क्योंकर ऐसा करता हूँ ?
ताकि पता न चले मैं सोच क्या रहा हूँ
4.
चुपचाप जाड़े के दिन आए
जैसे परदेसी घर लौटता है
सोने की ख़ातिर