गोधूली वेला के तरु के
अन्तराल से छनकर उतरी-
स्वर्ण-तीर-सी कान्त किरण में
उड़ते रज-कण को मिलती-श्री!
अमर स्पर्श यह मधुर प्रेम का
प्राणों को विस्मय से भरता!
रजकण क्षुद्र; अषाढ़ साँझ-सा-
फूल समोद दमकता फिरता!
अरुण तुम्हारे चितवन-पथ में
पड़ कर, प्राण! किसी दिन सहसा-
लघु रजकण से हुआ बदलकर
मैं भी आभावान्-कनक-सा!