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छाया कहाँ गई / रमेश तैलंग
Kavita Kosh से
धूप सरकने लगी
अरे, अब अपनी छाया कहाँ गई?
पिछलग्गू की तरह सुबह से
अपने पीछ-पीछे थी।
सिर के ऊपर सूरज था
और वह पाँवों के नीचे थी।
शाम पसरने लगी,
अरे, अब अपनी छाया कहाँ गई?
कैसे-कैसे रूप बनाकर
रही लुभाती रस्ते में,
लंबी, नाटी, आड़ी-टेढ़ी
घट-बढ़ जाती रस्ते में,
रात उतरने लगी
अरे, अब अपनी छाया कहाँ गई?