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जग उठे भाग्य अग-जग के / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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 जग उठे भाग्य अग-जग के, परम आनन्द है छाया।
 श्याम की अह्लादिनी राधा-प्रकट का काल शुभ आया॥

 बज उठीं देव-दुन्दुभियाँ, गान करने लगे किंनर,
 सुर लगे पुष्प बरसाने अमित आनन्द उर में भर,
 ग्वालिनी वेष धारणकर सुन्दरी चलीं सुर-जाया१।

 चले सब ग्वाल नर-नारी वृद्ध-बालक सुसज्जित हो;
 देख शोभा परम, सहमे देव-दम्पति सुलज्जित हो,
 प्रेम के राज्य पावन में हु‌आ जो आज मन भाया२।

 यशोदा-नन्द परमानन्द पा अति हो उठे विह्वल,
 चले ले भेंट अति अनुपम, खिल उठे हृदय-पंकज-दल,
 लला थे गोद जननी के, प्रफुल्लित थी कलित काया३।

 ऋषी-मुनि हु‌ए हर्षित, जो बने थे व्रज-मधुर गोपी,
 फलित होता मनोरथ जान उनकी देह है ओपी,
 हु‌आ सब ओर जयकारा, मिट गयी सब मलिन माया४।