(राग जंगला-ताल कहरवा)
जड-चेतन-सबमें देखूँ नित बाहर-भीतर श्रीभगवान।
करूँ प्रणाम नित्य नत-मस्तक-मन, तजकर सारा अभिमान॥
करूँ सभीकी यथायोग्य शुचि सेवा, उनमें प्रभु पहचान।
करूँ समर्पण उन्हें उन्हींकी वस्तु विनम्र सहित-समान॥
राग, कामना, ममता सारी प्रभु-चरणोंमें पाकर स्थान।
नित्य कराती रहे मधुरतम प्रेम-सुधा-रसका ही पान॥