जल समाधि / तोताबाला ठाकुर / अम्बर रंजना पाण्डेय

पौषपार्बो की रात्रि मेघ घनघोर बरसता था
भीषण था समुद्र ऊँची लहरें नाग की भाँति
पछाड़ खाती थी माथा और पूँछ पटक-पटककर
कछार पर

किन्तु मेरा कछार अब श्वास में गहरा नीला
जल था,
तिमिर ब्रह्म की भाँति

सब और व्याप्त था केवल क्षणांश को
दामिनी के दमक में छोड़ दिया जो संसार
माया की भाँति कौंध उठता था

अभिसारिका मैं गुरुजनों की दृष्टि बचाती
सखियों से छल कर, छन्द बान्ध चरणों में चली
अपने प्रियतम काल से रति करने

उद्दण्ड समुद्र के चित्र जो बोईबाड़ी में पिता के
पुस्तकालय में देखा करती थी वही सत्य हुए मेरे जीवन में

अन्तर केवल इतना है कि उनमें पालोंवाली नौका होती थी
मेरे निकट केवल यह शरीर है

विदा बन्धुओं !

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