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ज़रा सी बची औरत / वंदना गुप्ता
Kavita Kosh से
नहीं बचाना हरा रंग
जो बोने पर उगे
फिर वही फसल
नहीं बचाना गुलाबी रंग
जो फिर एक बार
प्रेम की आंच पर तपे
एक एक कर
करना है हर रंग को निष्कासित
सारा खेल ही रंगों का तो है
और इस बार
रंगहीन बनाना है आसमां
जो तुम्हारी बनायीं लकीरों को काट सके
और कोशिश के पायदान चढ़ती गयी
मगर फिर भी
हर नकार की प्रतिध्वनि में भी जाने कैसे हर बार जरा सी बचती रही औरत
ओ खुद को उसका भाग्यविधाता बताने वाले
भविष्य बचाने को
ये जरा सी बची औरत का बीज गर संभाल सको तो संभाल लेना
भविष्य सुना है अनिश्चित हुआ करता है