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ज़िंदगी के सराब भी देखूँ / 'रसा' चुग़ताई
Kavita Kosh से
ज़िंदगी के सराब भी देखूँ
नींद आए तो ख़्वाब भी देखूँ
रात काटूँ किसी ख़राबे में
मुँह अँधेरे गुलाब भी देखूँ
हर्फ़-ए-ताज़ा वरक़ वरक़ लिक्खूँ
सादा दिल की किताब भी देखूँ
डूब जाऊँ किसी समंदर में
फिर जज़ीरों के ख़्वाब भी देखूँ
ज़िंदगी में हिमाक़तें भी करूँ
उस का फिर सद्द-ए-बाब भी देखूँ
आज दिल की बयाज़ में लिख कर
लफ़्ज़ ख़ाना-ख़राब भी देखूँ
प्यास दिल की बुझाऊँ आँखों से
रक़्स करते हबाब भी देखूँ