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ज़िन्दगी-सी यों ज़िन्दगी भी नहीं / शेरजंग गर्ग
Kavita Kosh से
ज़िन्दगी-सी यों ज़िन्दगी भी नहीं।
किंतु मंज़ूर खुदकुशी भी नहीं।
सिलसिलेवार मौत जीते हैं,
ज़िन्दगी की घड़ी टली भी नहीं।
दिल की दुनिया उजाड़ दी खुद ही,
गो की फ़ितरत में दिल्लगी भी नहीं।
बेखुदी का मलाल कौन करे,
काम आई यहाँ खुदी भी नहीं।
कट गई उम्र, उठ गई महफ़िल,
बात ईमान की चली भी नहीं।
प्रश्न उठता है मैं कहाँ हूँ कहाँ,
और उत्तर है मैं कहीं भी नहीं।