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जीत / जयप्रकाश मानस

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पतंग के कटने से पहले ही

लूटी जा चुकी धागा-चकरी

हार गया हूँ आज

जो कभी न हारा था

लेकिन

मन तो मन है

धागा-चकरी सा घूम रहा

एक महीन तागा अन्तहीन

सरकता ही जाता है

नीलिमा में

एक टुकड़ा चटक लाल

कभी नीचे कभी ऊपर

कभी गोल-गोल चक्कर में

ऐंचता-खैंचता

उड़ता ही रहता है

जीत और किसे कहते हैं

कि मन उड़ता ही रहे

बिन धागा-चकरी के