जीवन-यात्रा में वापसी नहीं होती / मुकेश निर्विकार
समय अनंत है, किन्तु अंत में
यही पड़ेगा कम
रीत जायेंगी अवसरों की तमाम हांडियां
भरा करेंगे उन्हें हम नाहक टप-टप-टप-टप-टप
प्रायश्चित के आँसुओं से...
पल-पल देखते-देखते मरने की राह।
समझ नहीं आता कुछ भी---
जीयें अपनी गति से या दौड़े सरपट
समय के साथ-साथ...
औंधे मुंह गिरने की हद तक?
मिलेगा कुछ भी नहीं तुम्हें एक दिन
ढक्कन उठाकर
समय की इन तमाम खाली पतीलियों में
बेशक खदका किया जीवन, उम्र भर
समय की स्याह देग पर...
सब कुछ भाप बनकर उड़ चुकेगा!
समय के साथ दौड़ते-दौड़ते
गिरे हम अपने अंदर
कई-कई बार
दिये धोखे हमने खुद को भी
गैरों के साथ-साथ
ईमान का कछुआ पहुंचा, बेशक,
सबसे बाद में
लेकिन सिर्फ वही जी सका है
वक्त का तमाम फासला
छलांग लगाकर पहले पहुँचे खरगोश
अभी भी अंजान हैं रस्तों से
मंज़िलें पाकर भी सहम गईं हैं
फरेबी छ्लांगे उनकी
कहने को वह रेस जीत चुके हैं!
आ तो गया हूँ मैं यहाँ
दौड़ते-दौड़ते बेतहाशा
वक्त के साथ-साथ
लेकिन मुझे
यह जीत का पड़ाव नहीं,
हार का दलदल लगता है
हर पल मुझे खुद में समोता
मेरा अस्तित्त्व मुझसे छीनता हुआ
निरर्थक रही तमाम भाग-दौड़ जीवन की...
अब कुछ हो भी तो नहीं सकता
जीवन यात्रा में वापसी नहीं होती!