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जीवन व्यर्थ गँवाया / महेश चंद्र पुनेठा
Kavita Kosh से
भूखे का भोजन
प्यासे का पानी
ठिठुरते की आग
तपते को हवा
बेघर का घर
ज़रूरतमंद का धन
लुटे-पिटे का ढाढ़स
बिछुड़ते का राग
फगुवे का फाग
गर इतना भी बन न पाया
हाय! जीवन यॅू ही व्यर्थ गँवाया ।