जूतों की आवाज में रोना / योगेंद्र कृष्णा
जानी-पहचानी सड़कों की
बासी चकाचौंध
और मशीनी शोर से
ऊबा हुआ मेरा मन
खामोश एक रात
ऊंची ईमारतों के पिछवाड़े
अंधेरी गलियों में अचानक भटक गया
इससे पहले कि मैं
अपनी नाक पर रूमाल रख
गली के अंतिम छोर से बाहर
फिर चकाचौंध में खो जाऊं
मेरे जूते और कान
एक साथ बजने लगे
न जाने कब से पीछा करती
कई आवाजों ने मुझे टोका है:
यह रास्ता तुमने खुद चुना है
इसलिए पूछती हूं
अपनी चकाचौंध दुनिया में
लौटने के पहले
क्या तुम बता सकोगे
कि दुनिया की हर खूबसूरत ईमारत
और होटल के पिछवाड़े
क्यों एक गंदा नाला रहता है
जहां हर सभ्य आदम की
आदिम इच्छाओं का कचरा
अनवरत बहता है
और पूरी सभ्यता की सड़ांध
रिस-रिस कर इन झोपिड़यों में आती है...
कि चमकदार जूतों में बंधे पांव
और सफेद पोशाक में लिपटी
हर सभ्य आदमी की देह
इन अंधेरों से गुजरती हुई
क्यों अपने ही जूतों की आवाज से
अचानक कांपती है...
मैंने देखा
उस अंधेरे में भी
एक अजीब उजास थी
और कानों में बज रही आवाजें
मुझे बता रही थीं:
क्या तुम्हें पता है
इन ऊंची ईमारतों की नींव
जमीन के भीतर नहीं
गंदे नालों के आसपास
युगों से खड़ी
इन अंधेरी झोपिड़यों में होती है
जहां रहने वाली उदास आत्माएं
यहां से गुजरते आदमी के
जूतों की आवाज में रोती हैं
आदमी अपनी नाक पर रूमाल रख
जितना ही सरपट भागता है
रुदन उतना ही तेज
और आवाज उसके और करीब होती है