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जेहन में न बैठे / कुँअर रवीन्द्र

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मेरी आकांक्षाओं
करो अराधना
मेरी कल्पना साकार हो
परन्तु
न तो अज्ञेय की "प्रारब्ध में लिपटी" हो
न ही उसे दुष्यंत के "दरख्तों के साए में धुप लगे"
न तो शमशेर की कविता की तरह हो
कि हौले से छूना पड़े
इतनी गेय भी न हो
कि उसे हर कोई गा सके
न तो इतनी अतुकांत हो कि
किसी के जेहन में न बैठे