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ज्योति-पर्व / महेन्द्र भटनागर
Kavita Kosh से
मिट्टी के लघु-लघु दीपों से
जगमग हर एक भवन !
अँधियारे की लहरों से भूमि भरी,
पर,
उस पर तिरती झलमल ज्योति-तरी,
- जलना है,
चाहे हो जाये - तारक-शशि हीन गगन !
जग पर छायी धूमिल वाष्प असुन्दर,
पर,
बहता है अविरल स्नेह-समुन्दर,
- युग के मन-मरुथल में तुमको
- रहना है भाव-प्रवण !
विशृंखल तेज़ प्रभंजन से संसृति,
पर,
मुसकाती संग नयी बन आकृति,
- टूटेगा बाँध प्रलय का जब
- हर नूतन सृष्टि चरण !
कोलाहल हर कोने से फूट रहा,
अब तो सपनों का बंधन टूट रहा,
- खो जाएगा नव-जीवन की
- हलचल में क्षीण मरण !