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तड़पते सिमटते जिए जा रहा हूँ / विकास
Kavita Kosh से
तड़पते सिमटते जिए जा रहा हूँ
मगर होठ अपने सिए जा रहा हूँ
न चाहत न दरपन न आंगन न दामन
कहाँ कुछ किसी से लिए जा रहा हूँ
चरागों से कह दो उजाला नहीं है
ज़हर तीरगी का पिए जा रहा हूँ
दुपट्टा मिला है मुझे भी किसी का
हवा के हवाले किए जा रहा हूँ
लिखा था कभी नाम मैंने तुम्हारा
सनम वो हथेली दिए जा रहा हूँ